आदिवासियों को उनके रॉबिनहुड के जरिए साधने की कोशिश कर रहे राहुल गांधी, जानिए कौन हैं टंट्या भील

खंडवाः कांग्रेस सांसद की फिलहाल मध्य प्रदेश में है। बुधवार को बुरहानपुर होकर एमपी में एंट्री के दूसरे दिन राहुल खंडवा जिले में के जन्मस्थान पर पहुंचे। यहां एक जनसभा को संबोधित करते हुए राहुल ने बीजेपी सरकार पर जोरदार हमला बोला। बीजेपी पर आदिवासियों के अधिकार छीनने का आरोप लगाते हुए राहुल ने कहा कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर जल-जंगल-जमीन पर उनके हक वापस दिए जाएंगे। एक दिन पहले ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी टंट्या भील की जन्मस्थली पर गए थे। इस दौरान शिवराज ने पेसा एक्ट के फायदों के बारे में बताया। दरअसल, यह सारा खेल आदिवासियों के वोट को लेकर है जिस पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों की नजर है। आदिवासियों को अपने पाले में करने के लिए दोनों ही पार्टियां टंट्या भील को जरिया बना रही हैं जो उनके जननायक माने जाते हैं। 1840 में हुआ था टंट्या भील का जन्म टंट्या भील का जन्म साल 1840 में खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडाडा गांव में हुआ था। वे गुरिल्ला युद्ध के महारथी थे। आदिवासियों के पारंपरिक हथियार तीर के साथ वे बंदूक चलाने में भी निपुण थे। टंट्या भील ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ 12 साल तक लगातार 24 युद्ध लड़े। वे कभी पराजित नहीं हुए। उन्हें सुनियोजित षड्यंत्र कर ही गिरफ्तार किया गया था। वे गरीबों के मसीहा थे, इसलिए उन्हें आदिवासियों के जननायक का दर्जा हासिल है। 10 नवंबर, 1889 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनकी गिरफ्तारी की खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इसमें उन्हें भारत का रॉबिनहुड बताया गया था। इसलिए कहलाए टंट्या मामा टंट्या भील की कर्मभूमि मध्य भारत, मध्य प्रांत और मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र थे। इसी इलाके में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया था। टंट्या भील के पिता ने बचपन में उन्हें शपथ दिलाई थी कि वे बेटियों-बहुओं की रक्षा करेंगे। आगे चलकर टंट्या भील ने 300 निर्धन कन्याओं का विवाह कराया और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए। इसलिए उन्हें टंट्या मामा भी कहा जाता है। 1876 से शुरू किया अंग्रेजों के खिलाफ संग्राम 1857 के विद्रोह के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गया। इसके बाद देश की गरीब और अशिक्षित जनता पर ब्रिटिश सरकार का अत्याचार बढ़ गया। ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर मालगुजार और साहूकारों ने भी जनसाधारण का शोषण शुरू कर दिया। टंट्या भील ने इसके विरोध में वनवासियों और पीड़ितों को एकत्रित किया और अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया। साल 1876 से टंट्या भील का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ था। 20 नवंबर 1878 को उन्हें धोखे से पकड़कर खंडवा जेल में डाल दिया गया, लेकिन चार दिन बाद ही वे रात में अपने साथियों के साथ दीवार लांघकर भाग गए। इसके बाद उन्होंने अपने संगठन को मजबूत किया और ब्रिटिश सरकार के समानांतर करीब 1700 गांवों में अपनी सरकार शुरू कर दी। उन्होंने अपनी "टंट्या पुलिस" और चलित न्यायालय बनाए। ब्रिटिश सरकार ने बनाई स्पेशल टास्क फोर्स टंट्या भील लगातार 12 साल तक अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम चलाते रहे। इसमें अंतिम सात साल बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि तब ब्रिटिश सरकार को स्पेशल टास्क फोर्स गठित करनी पड़ी थी। इस स्पेशल टास्क फोर्स के कमांडर एस. ब्रुक थे। टंट्या भील ने एक हमले में ब्रुक की नाक काट दी थी। गरीबों की मदद कर बने रॉबिनहुड टंट्या ने ब्रिटिश सरकार से 24 बार संघर्ष किया और हर बार विजयी रहे। इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के खजाने और जमीदारों तथा मालगुजारों का धन लूटकर उसे निर्धनों को दिया। अकाल के समय भी उन्होंने किसी को भूख से मरने नहीं दिया। तब यह बात मशहूर हो गई थी कि महारथी टंट्या के राज में कोई भूखा नहीं सोता। इसी चलते वे आदिवासियों के जननायक बन गए। साजिश के चलते हुए गिरफ्तार एक बार टंट्या भील और उनके सहयोगी बिजानिया को गिरफ्तार करके जबलपुर सेंट्रल जेल लाया गया, लेकिन दोनों फिर भाग निकले। बदकिस्मती से बिजानिया, दौलिया मोडिया और हिरिया पकड़े गए और उन्हें फांसी दे दी गई। इससे टंट्या का संगठन कमजोर हो गया, लेकिन ब्रिटिश सरकार उन्हें फिर भी गिरफ्तार नहीं कर सकी। तब सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए उनकी मुंहबोली बहन के पति गणपत सिंह का सहयोग लिया। 11 अगस्त 1889 को रक्षा बंधन के दिन जब राखी बंधवाने के लिए टंट्या अपनी बहन के यहां पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 4 दिसंबर, 1889 को हुई फांसी टंट्या भील को पहले खंडवा और फिर जबलपुर सेंट्रल जेल में रखा गया। जबलपुर के न्यायालय में उनके खिलाफ देशद्रोह के मुकदमा पर सुनवाई शुरू हुई तो हजारों लोग टंट्या भील को देखने आ गए। इसके चलते इस इलाके में कर्फ्यू लगाना पड़ा था। टंट्या भील को 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई गई। 4 दिसंबर 1889 को उन्हें जबलपुर के केंद्रीय जेल में फांसी पर लटका दिया गया। फांसी के बाद उनके मृत शरीर को पातालपानी के कालाकुंड रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया गया ताकि ब्रिटिश सरकार की दहशत और सर्वोच्चता बनी रहे। यहां आगे चलकर टंट्या मामा का मंदिर भी बनवाया गया। यह प्रचलित है कि आज भी पातालपानी से जो भी रेल निकलती है, वह उनके सम्मान में वहां थोड़ी देर के लिए रुकती है।
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